Tuesday, August 27, 2013

वह चीनी भाई —महादेवी वर्मा

मुझे चीनियों में पहचान कर स्मरण रखने योग्य विभिन्नता कम मिलती है। कुछ समतल मुख एक ही साँचे में ढले से जान पड़ते हैं और उनकी एकरसता दूर करने वाली, वस्त्र पर पड़ी हुई सिकुड़न जैसी नाक की गठन में भी विशेष अंतर नहीं दिखाई देता।
कुछ तिरछी अधखुली और विरल भूरी बरूनियों वाली आँखों की तरल रेखाकृति देख कर भ्रांति होती है कि वे सब एक नाप के अनुसार किसी तेज़ धार से चीर कर बनाई गई हैं। स्वाभाविक पीतवर्ण धूप के चरण चिह्नों पर पड़े हुए धूल के आवरण के कारण कुछ ललछौंहे सूखे पत्ते की समानता पर लेता है। आकार प्रकार वेशभूषा सब मिल कर इन दूर देशियों को यंत्र चालित पुतलों की भूमिका दे देते हैं, इसी से अनेक बार देखने पर भी एक फेरी वाले चीनी को दूसरे से भिन्न कर के पहचानना कठिन है।
पर आज उन मुखों की एकरूप समष्टि में मुझे आर्द्र नीलिमामयी आँखों के साथ एक मुख स्मरण आता है जिसकी मौन भंगिमा कहती है - "हम कार्बन की कापियाँ नहीं हैं। हमारी भी एक कथा है। यदि जीवन की वर्णमाला के संबंध में तुम्हारी आँखें निरक्षर नहीं तो तुम पढ़ कर देखो न!"

कई वर्ष पहले की बात है मैं तांगे से उतर कर भीतर आ रही थी कि भूरे कपड़े का गठ्ठर बाएँ कंधे के सहारे पीठ पर लटकाए हुए और दाहिने हाथ में लोहे का गज घुमाता हुआ चीने फेरी वाला फाटक के बाहर आता हुआ दिखा। संभवत: मेरे घर को बंद पाकर वह लौटा जा रहा था। "कुछ लेगा मेमसाहब!" - दुर्भाग्य का मारा चीनी! उसे क्या पता कि वह संबोधन मेरे मन में रोष की सबसे तुंग तरंग उठा देता है। मइया, माता, जीजी, दिदिया, बिटिया आदि न जाने कितने संबोधनों से मेरा परिचय है और सब मुझे प्रिय हैं, पर यह विजातीय संबोधन मानो सारा परिचय छीन कर मुझे गाउन में खड़ा कर देता है। इस संबोधन के उपरांत मेरे पास से निराश होकर न लौटना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है।
मैने अवज्ञा से उत्तर दिया-मैं फारन ( विदेशी) नहीं ख़रीदती।
"हम क्या फारन है? हम तो चाइना से आता है।" कहने वाले के कंठ में सरल विस्मय के साथ उपेक्षा की चोट से उत्पन्न क्षोभ भी था। इस बार रुक कर उत्तर देने वाले को ठीक से देखने की इच्छा हुई। धूल से मटमैले सफ़ेद किरमिच के जूते में छोटे पैर छिपाए, पतलून और पाजामे का सम्मिश्रित परिणाम जैसा पाजामा और कुर्ता तथा कोट की एकता के आधार पर सिला कोट पहने, उधड़े हुए किनारों से पुरानेपन की घोषणा करते हुए हैट से आधा माथा ढके दाढ़ी मूछ विहीन दुबली नाटी जो मूर्ति खड़ी थी वह तो शाश्वत चीनी है। उसे सबसे अलग कर के देखने का प्रश्न जीवन में पहली बार उठा।
मेरी उपेक्षा से उस विदेशी को चोट पहुँची, यह सोच कर मैंने अपनी नहीं को और अधिक कोमल बनाने का प्रयास किया, "मुझे कुछ नहीं चाहिए भाई।" चीनी भी विचित्र निकला, "हमको भाय बोला है, तुम ज़रूर लेगा, ज़रूर लेगा- हाँ?" 'होम करते हाथ जला' वाली कहावत हो गई - विवश कहना पड़ा, "देखूँ, तुम्हारे पास है क्या।" चीनी बरामदे में कपड़े का गठ्ठा उतारता हुआ कह चला, "भोत अच्छा सिल्क आता है सिस्तर! चाइना सिल्क क्रेप. . ." बहुत कहने सुनने के उपरांत दो मेज़पोश ख़रीदना आवश्यक हो गया। सोचा- चलो छुट्टी हुई, इतनी कम बिक्री होने के कारण चीनी अब कभी इस ओर आने की भूल न करेगा।
पर कोई पंद्रह दिन बाद वह बरामदे में अपनी गठरी पर बैठ कर गज को फ़र्श पर बजा-बजा कर गुनगुनाता हुआ मिला। मैंने उसे कुछ बोलने का अवसर न दे कर, व्यस्त भाव से कहा, ''अब तो मैं कुछ न लूँगी। समझे?'' चीनी खड़ा होकर जेब से कुछ निकालता हुआ प्रफुल्ल मुद्रा से बोला, ''सिस्तर आपका वास्ते ही लाता है, भोत बेस्त सब सेल हो गया। हम इसको पाकेट में छिपा के लाता है।''
देखा- कुछ रूमाल थे ऊदी रंग के डोरे भरे हुए, किनारों का हर घुमाव और कोनों में उसी रंग से बने नन्हें फूलों की प्रत्येक पंखुड़ी चीनी नारी की कोमल उँगलियों की कलात्मकता ही नहीं व्यक्त कर रही थी, जीवन के अभाव की करुण कहानी भी कह रही थी। मेरे मुख के निषेधात्मक भाव को लक्ष्य कर अपनी नीली रेखाकृत आँखों को जल्दी-जल्दी बंद करते और खोलते हुए वह एक साँस में "सिस्तर का वास्ते लाता है, सिस्तर का वास्ते लाता है!" दोहराने लगा।
मन में सोचा, अच्छा भाई मिला है! बचपन में मुझे लोग चीनी कह कर चिढ़ाया करते थे। संदेह होने लगा, उस चिढ़ाने में कोई तत्व भी रहा होगा। अन्यथा आज एक सचमुच का चीनी, सारे इलाहाबाद को छोड़ कर मुझसे बहन का संबंध क्यों जोड़ने आता! पर उस दिन से चीनी को मेरे यहाँ जब तब आने का विशेष अधिकार प्राप्त हो गया है। चीन का साधारण श्रेणी का व्यक्ति भी कला के संबंध में विशेष अभिरुचि रखता है इसका पता भी उसी चीनी की परिष्कृत रुचि में मिला।
नीली दीवार पर किस रंग के चित्र सुंदर जान पड़ते हैं, हरे कुशन पर किस प्रकार के पक्षी अच्छे लगते हैं, सफ़ेद पर्दे के कोने में किस बनावट के फूल पत्ते खिलेंगे आदि के विषय में चीनी उतनी ही जानकारी रखता था, जितनी किसी अच्छे कलाकार से मिलेगी। रंग से उसका अति परिचय यह विश्वास उत्पन्न कर देता था कि वह आँखों पर पट्टी बाँध देने पर भी केवल स्पर्श से रंग पहचान लेगा।
चीन के वस्त्र, चीन के चित्र आदि की रंगमयता देखकर भ्रम होने लगता है कि वहाँ की मिट्टी का हर कण भी इन्हीं रंगों से रंगा हुआ न हो। चीन देखने की इच्छा प्रकट करते ही 'सिस्तर का वास्ते हम चलेगा' कहते-कहते चीनी की आँखों की नीली रेखा प्रसन्नता से उजली हो उठती थी।
अपनी कथा सुनाने के लिए वह विशेष उत्सुक रहा करता था। पर कहने सुनने वाले की बीच की खाई बहुत गहरी थी। उसे चीनी और बर्मी भाषाएँ आती थीं, जिनके संबंध में अपनी सारी विद्या बुद्धि के साथ मैं 'आँख के अंधे नाम नयनसुख' की कहावत चरितार्थ करती थी। अंग्रज़ी की क्रियाहीन संज्ञाओं और हिंदुस्तानी की संज्ञाहीन क्रियाओं के सम्मिश्रण से जो विचित्र भाषा बनती थी, उसमें कथा का सारा मर्म बँध नहीं पाता था। पर जो कथाएँ हृदय का बाँध तोड़ कर दूसरों को अपना परिचय देने के लिए बह निकलती हैं, प्राय: करुण होती हैं और करुणा की भाषा शब्दहीन रह कर भी बोलने में समर्थ है। चीनी फेरीवाले की कथा भी इसका अपवाद नहीं।

महादेवी वर्मा 

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